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लेख

परमाणु बम और हिरोशिमा

      1932 ई. के जिस दिन चैडविक ने परमाणु के तीसरे कण न्यूट्रॉन का आविष्कार किया, उसी दिन शुरु हो गया था परमाण्विक दानव का रोमांचक इतिहास! 1934 में हंगरी के भौतिकशास्त्री लियो जिलर्ड ने अनुसन्धान कर पाया कि कयेक नाभिकों पर न्यूट्रॉनों का आघात करने पर एक नाभिक दो न्यूट्रॉनों को जन्म देता है और वे दोनों प्रचण्ड गति से छिटक कर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। ये मुक्त न्यूट्रॉन पुनः अन्य नाभिकों से टकराकर दो-दो न्यूट्रॉन मुक्त करवाते हैं और इस प्रकार शुरु हो जाता है चैन-रिएक्शन या शृँखल-प्रतिक्रिया। इससे जिस विशाल परिमाण में शक्ति की उत्पत्ति होती है, उसकी कल्पना उस समय के लोगों में नहीं थी।

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      हिटलर की घोर जातीयता से बचकर जिलर्ड इंग्लैण्ड आ गये। 1935 में यहाँ उन्होंने अपने तथ्यादि ब्रिटिश सरकार को समर्पित किये। पर प्रयोगों के दौरान चूँकि उच्च शक्ति वाले न्यूट्रॉनों का आघात नाभिकों पर किया गया था, अतः एकाधिक न्यूट्रॉन मात्र निकले। चैन-रिएक्शन नहीं शुरु हुआ। जब एक अन्य महिला वैज्ञानिक मिस लिज मेइट्नर ने परमाणु-विखण्डन पद्धति का आविष्कार किया, तब जिलर्ड को पता चला कि शृँखल-प्रतिक्रिया के लिए निम्न शक्ति वाले न्यूट्रॉन चाहिए। अब तक जिलर्ड तथा कुछ अन्य वैज्ञानिक परमाण्विक शक्ति के व्यवहार से प्रचण्ड विध्वंसकारी बम बनाने के बारे में सोचने लगे थे। इसके लिए आवश्यक था- अत्याधुनिक प्रयुक्ति तथा पैसा। साथ ही, अनुकूल परिवेश भी चाहिए था और सब तरफ से उपयुक्त था- अमेरीका। क्योंकि यूरोप उस समय युद्ध की आशंका से आतंकित था।

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      आइंस्टाईन के प्रयास से अमेरीका के प्रेसीडेण्ट रूजवेल्ट तैयार हो गये। इसके लिए 'मैनहटन प्रोजेक्ट' के नाम से एक गुप्त प्रकल्प शुरु हो गया। पहले-पहल सरकारी खर्च था- 6 हजार डॉलर, जो 1945 तक हो गया- 12 हजार करोड़ डॉलर, अर्थात् 12 हजार करोड़ रुपये से से भी अधिक।

      सम्पूर्ण यूरोप में अब तक द्वितीय विश्व युद्ध शुरु हो चुका था।

      कई सालों तक पूर्ण गोपनीयता बरतते हुए देश-विदेश के वैज्ञानिकों, इंजीनियरों तथा सैनिक अफसरों के नेतृत्व में यह प्रकल्प अनवरत चलता रहा। हालाँकि परमाणु बम के लिए आवश्यक था- यूरेनियम, पर वह भी यूरेनियम का एक अत्यन्त दुर्लभ समस्थानिक (आइसोटोप)- 'यूरेनियम-235'। विस्फोरण से गवेषकों को ही हानि न पहुँचे, इसके लिए प्रतिक्रिया को नियंत्रित भी रखना था। और भी कई समस्यायें थीं। कई गवेषकों को तो विश्वास ही न था कि यह बम कभी फटेगा भी!

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