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रूपकथा

-          ‘बनफूल’

सुन्दर ज्योत्सना।

कहीं कोई आहट नहीं। गहन रात्रि। दूर से नदी की कलकल ध्वनि तैरती आ रही है। निर्जन प्रान्त के एक कोने में खड़ा हूँ। स्वप्न-विह्वल नेत्रों से देख रहा हूँ- ज्योत्सना में संसार बह रहा है। कुत्सित चीजें भी सुन्दर हो उठी हैं। वह कचरे का ढेर भी, मानो जड़ीदार साड़ी पहनकर मोहिनी बन गयी हो। आकाश के काले बादलों में भी रुपहला आवेश था।

निर्जन प्रान्त में अकेला खड़ा हूँ। उसी की प्रतीक्षा में। उसी की प्रतीक्षा में मानो इस गहन रात्रि की ज्योत्सना भी परिपूर्ण हो गयी हो।

आ रही है- । हाँ, वही तो। अंग-प्रत्यंगों से छिटक रही है ज्योत्सना की आकुलता। उसके पायलों की झंकार से ज्योत्सना भी सिहर उठी है। ........वही तो मेरी ओर देखकर मुस्कुरायी।

सहसा पता नहीं कहाँ से एक दस्यु दौड़ा आया और उसने उस किशोरी की छाती में चाकू घोंप दिया। ज्योत्सना में रक्तरंजित चाकू चक-चक चमक उठा। रक्त की धार में ज्योत्सना डूब गयी।

उसी दम लपककर मैंने उस आदमी को पकड़ा। पकड़कर देखा- यह क्या? यह तो मेरा ही विवेक है!

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हे जननी, अब दे आशीष तू

जाग उठे तेरे किशोर सन्तान।

आपनी आजादी को न खोने पाये

स्वतंत्रता दिवस पर दे यही वरदान।

-          रंजीत कुमार ‘बासु’